हिरासत में मौत का अर्थ ?

पुलिस हिरासत में किसी अभियुक्त की मौत को ‘हिरासत में मौत’ का मामला माना जाता है।

चाहे वह अभियुक्त :

  1. रिमांड पर हो या नहीं हो।
  2. उसे हिरासत में लिया गया हो या केवल पूछताछ के लिए बुलाया गया हो।
  3. उस पर कोई मामला अदालत में लंबित हो या वह सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहा हो,
  4. पुलिस हिरासत के दौरान आत्महत्या,
  5. बीमारी के कारण हुई मौत,
  6.  हिरासत में लिए जाने के दौरान घायल होने एवं इलाज के दौरान मौत।
  7. अपराध कबूल करवाने के लिए पूछताछ के दौरान पिटाई से हुई मौत।

सरल शब्दों में कहें तो पुलिस की हिरासत के दौरान अभियुक्त की मौत हो तो उसे ‘हिरासत में मौत’ माना जाता है।

 

पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौत के मामलों का ज़िक्र भारत के मुख्य न्यायाधीश एन. वी रमन्ना ने भी किया है.

अगस्त, 2021 में उन्होंने एक संबोधन में कहा, “संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है. इसके चलते पुलिस स्टेशनों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है। पुलिस जब किसी को हिरासत में लेती है तो उस व्यक्ति को तत्काल क़ानूनी मदद नहीं मिलती है. गिरफ़्तारी के बाद पहले घंटे में ही अभियुक्त को लगने लगता है कि आगे क्या होगा?”

सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में डीके बसु बनाम बंगाल और अशोक जौहरी बनाम उत्तर प्रदेश मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि –  हिरासत में मौत या पुलिस की बर्बरता “क़ानून शासित सरकारों में सबसे ख़राब अपराध” हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद हिरासत में हुई मौतों का विवरण दर्ज करने के साथ-साथ संबंधित लोगों को इसकी जानकारी देना अनिवार्य कर दिया गया। शीर्ष अदालत ने मौत के इन मामले में नियमों का पालन करने का निर्देश दिया.

पुलिस की बर्बरता को लेकर एक गैर सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र भी लिखा था. और पुलिस की बर्बरता और पुलिस हिरासत में हुई मौतों की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष अदालत ने भी स्वत: संज्ञान लिया था। तब सर्वोच्च अदालत ने राज्यों को नोटिस भेजकर पूछा था कि इस मामले में राज्य सरकारें क्या कर रही हैं?

इस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ़्तारी के दौरान पुलिस के व्यवहार को लेकर नियम निर्धारित किए थे। ये नियम सिर्फ पुलिस पर ही नहीं बल्कि रेलवे, सीआरपीएफ, राजस्व विभाग सहित उन सभी सरकारी सुरक्षा एजेंसियों पर भी लागू होते हैं जो अभियुक्तों को पूछताछ के लिए गिरफ़्तार कर सकती हैं। 

हिरासत में मृत्यु से संबंधित सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि – ” बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने और चोरी के मामलों में पूछताछ के दौरान उत्पीड़न के कई मामले देखने को मिले हैं. अक्सर इसी पिटाई से अभियुक्त की मौत हो जाती है. यदि किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो जाती है, तो ऐसी मौतों को छिपाया जाता है या पुलिस हिरासत से रिहा होने के बाद व्यक्ति की मृत्यु को दिखाया जाता है। यदि पीड़ित परिवार शिकायत दर्ज कराने की कोशिश करता है तो पुलिस शिकायत दर्ज नहीं करती क्योंकि पुलिस एक – दूसरे का समर्थन करती हैं. एफ़आईआर तक दर्ज नहीं होती है। अगर मामला अदालत में पहुंच भी जाता है, तो भी पुलिस के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं होता क्योंकि अपराध पुलिस हिरासत में हुआ है. ऐसे में गवाह या तो पुलिसकर्मी हैं या फिर लॉकअप में बंद अन्य अभियुक्त।पुलिस एक-दूसरे के ख़िलाफ़ गवाही नहीं देती और अभियुक्त डर के मारे मुंह नहीं खोलते।  इसलिए अक्सर इस अपराध को करने वाली पुलिस बरी हो जाती है। ”

हिरासत में मृत्यु जैसी घटनाओं को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट  के  निर्देश निम्नलिखित है –

1. अभियुक्त को गिरफ़्तार करने गए पुलिसकर्मी वर्दी पर अपना बैज, नाम का टैग और पहचान ठीक से लगाकर जाएं ताकि यह स्पष्ट रूप से नज़र आए. एक रजिस्टर में स्पष्ट रूप से उल्लेख होना चाहिए कि कौन अधिकारी या पुलिसकर्मी अभियुक्त से पूछताछ करेंगे.

2. अभियुक्त की गिरफ़्तारी के बाद, एक मेमो तैयार होना चाहिए. यह अभियुक्त के साथ-साथ अभियुक्त के परिवार के किसी सदस्य या किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए. मेमो में गिरफ़्तारी की तारीख और समय का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए.

3. अभियुक्त की हिरासत में गिरफ़्तारी के बाद अभियुक्त को अपने परिवार के सदस्य, मित्र या किसी अन्य शुभचिंतक को जल्द से जल्द अपने बारे में जानकारी देने का अधिकार है.

4. यदि अभियुक्त को किसी दूसरे शहर में गिरफ़्तार किया गया है, तो आठ से दस घंटे के भीतर परिवार को गिरफ़्तारी की सूचना देना अनिवार्य है.

5. गिरफ़्तारी के समय अभियुक्त को उसके अधिकारों की जानकारी दी जानी चाहिए.

6. गिरफ़्तार अभियुक्त के जिन रिश्तेदारों या दोस्तों को गिरफ़्तारी की जानकारी दी गई है और जिस अधिकारी की हिरासत में अभियुक्त है, दोनों के नाम थाने की डायरी में दर्ज होने चाहिए.

7. अभियुक्त के अनुरोध पर गिरफ़्तारी के समय उसके शरीर पर सभी चोटों की जांच की जानी चाहिए और उन्हें दर्ज किया जाना चाहिए. इस तरह के निरीक्षण के रिकॉर्ड पर अभियुक्त और गिरफ़्तार करने वाले अधिकारी दोनों के हस्ताक्षर होने चाहिए और एक प्रति अभियुक्त को मिलनी चाहिए.

8. हिरासत के बाद प्रत्येक 48 घंटे पर अभियुक्त की मेडिकल जांच होनी चाहिए. इस जांच की रिपोर्ट के साथ-साथ अन्य सभी ज्ञापनों को मजिस्ट्रेट के रिकॉर्ड के लिए भेजा जाना चाहिए.

9. पूछताछ के दौरान समय-समय पर अभियुक्त को अपने वकील से मिलने देना चाहिए.

इन नियमों का पालन नहीं करने वाले पुलिस अधिकारियों एवं पुलिसकर्मियों को विभाग के भीतर ही दंडित करने का प्रावधान है, साथ ही न्यायालय की अवमानना के लिए भी दंडित किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि अगर किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है तो ऐसे व्यक्ति के परिवार को मुआवजा दिया जा सकता है.

पुलिस हिरासत में किसी की मौत हो जाए तो तत्काल प्राथमिकी दर्ज की जाए। साथ ही, सीआरपीसी की धारा 176 के तहत, मजिस्ट्रेट को हिरासत में हुई मौत पर पुलिस जांच से अलग एक स्वतंत्र जांच अनिवार्य तौर पर करानी है.

मृत्यु के 24 घंटे के अंदर ‘जांच मजिस्ट्रेट’ को पोस्टमार्टम के लिए शव को जिला सर्जन के पास भेजना चाहिए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक मृतक के पोस्टमॉर्टम का वीडियो भी बनाया जाना चाहिए। 

क्या हिरासत में हुई सभी मौतों की वजह पुलिस द्वारा की गई क्रूरता है ?

नहीं हर मामले में पुलिस की क्रूरता हिरासत में हुई अभियुक्त की मौत की वजह नहीं है। पुलिस हिरासत में हो या फिर गिरफ़्तारी के बाद थाने में, पूछताछ के दौरान, आगे की जांच के लिए अदालत द्वारा दी गई पुलिस रिमांड में या जेल में, सरकारी दस्तावेज़ों में हर तरह की मौत का कारण दर्ज किया जाता है। एनआरसीबी के मुताबिक, मौतें अस्पताल में भर्ती होने, इलाज, जेल में मारपीट, अन्य अपराधियों द्वारा हत्या, आत्महत्या, बीमारी या प्राकृतिक कारणों से हुई हैं। आरोपियों को भीड़ के द्वारा पकड़े जाने पर पिटाई कर दी जाती है इस पिटाई के चलते भी आरोपियों की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो जाती है। 

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