मुस्लिम महिलाओं को भी तलाक़ देने का अधिकार हासिल है : केरल हाई कोर्ट

केरल हाई कोर्ट ने 2022 के आखिर में एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि इस्लामिक क़ानून ‘ख़ुला’ के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को तलाक़ लेने का हक  है। इस मामले में मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939, के तहत चुनौती दी गई थी.

दरअसल कोर्ट ने एक मुसलमान महिला को अपने पति से तलाक़ लेने की अनुमति दी थी, जिस पर पति की तरफ़ से पुनर्विचार याचिका दायर की गई थी। इस याचिका को ख़ारिज करते हुए केरल होई कोर्ट की दो जजों की बेंच ने महिलाओं को ‘ख़ुला’ के तहत दिए गए तलाक़ के हक़ को मान्यता दी थी।

इस मामले में कोर्ट ने कहा –

”यह एक ऐसी पुनर्विचार याचिका है जिसमें महिलाओं को पुरुष की इच्छाओं से कमतर करके पेश किया गया है. यह पुनर्विचार मामला किसी फ़ैसले से प्रभावित याचिकाकर्ता की दलील के बजाय मुल्ला-मौलवियों और मुस्लिम समुदाय की पुरुष वर्चस्ववादी समुदाय की सोच प्रतीत होती है. ये तबक़ा मुस्लिम महिलाओं के क़ानून के दायरे से बाहर ख़ुला प्रथा के इकतरफ़ा इस्तेमाल को पचा नहीं पा रहा है.”

” पति की सहमति के बग़ैर महिला अपनी इच्छा से तलाक़ ले सकती है या नहीं- इसको लेकर देश में कोई व्यवस्था नहीं है।  ऐसी हालत में अदालत का यही मानना है कि पति की रज़ामंदी के बिना भी महिला ख़ुला का इस्तेमाल कर सकती है। ”

लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जो मुसलमानों की एक धार्मिक संस्था है इस से सहमत नहीं है।  यह संस्था भारतीय मुसलमानों को धार्मिक मामले में सलाह देती है और उनके धार्मिक हितों की रक्षा करने का दावा करती है।  ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने इसे फ़ैसले को अस्वीकार्य बताते हुए कहा है कि ख़ुला के तहत मुसलमान महिलाएँ केवल पति की सहमति से ही तलाक़ ले सकती हैं. कोर्ट ने जो फ़ैसला सुनाया है, वो  क़ुरान और हदीस के मुताबिक़ नहीं है और न ही धार्मिक उलेमाओं की इस्लामिक व्याख्याओं से मेल खाता है. ख़ुला के तहत पत्नी एकतरफ़ा तौर पर तलाक़ नहीं दे सकती और इसके लिए पति की सहमति ज़रूरी है।  साथ ही इस फ़ैसले को जल्द की सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की इस टिप्णणी पर महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले कुछ संस्थाओं ने नाराज़गी जताई है। महिला अधिकारों से जुड़ी कई संस्थाओं ने इस फ़ैसले को शरीयत के मुताबिक़ बताया है। उनके अनुसार, “क़ुरान एक महिला को ख़ुला का अधिकार देता है और केरल हाई कोर्ट ने इसी बात को सम्मान देते हुए फ़ैसला सुनाया है। “ 

मुसलमानों में तलाक़ ए बिद्दत यानी इंस्टेंट तलाक़ को ग़ैर क़ानूनी बनाने वाला मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) क़ानून 2019 बनाया गया है.

इक़रा इंटरनेशनल वीमेन अलांयस नाम की संस्था में एक्टिविस्ट और मुसलमान महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम कर रही उज़्मा नाहिद का कहना है कि तलाक़ देने का हक़ पुरुष का होता है और ख़ुला लेने का अधिकार महिला का होता है।  मुसलमान  महिलाओं को ख़ुला के तहत तलाक़ नहीं मिल रहा है या तलाक़ का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। केरल हाई कोर्ट में जो मामला आया है वो शरीयत के ख़िलाफ़ नहीं है और ये इस्लामिक शरिया को चुनौती नहीं देता है.”

मुसलमान महिलाओं के सशक्तीकरण पर काम करने वाली संस्था आवाज़-ए-ख़वातीन की निदेशक रत्ना शुक्ला आनंद का कहना है कि ” महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। औरत की सहमति के बिना मर्द अगर तलाक़ लेने की पहल कर सकता है तो महिलाओं को भी ये हक़ होना चाहिए कि वो अपने पति से संबंध-विच्छेद करने की पहल कर सकें। औरतों के सम्मान और उसकी मर्यादा को बनाए रखने के लिए ये बहुत ज़रूरी हो गया है कि इस्लाम में दिए जाने वाले हर तरह के तलाक़ को प्रतिबंधित किया जाए और ये क़ानून बनाया जाए कि तलाक़ सिर्फ़ अदालत के ज़रिए ही होगा।  ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इस्लाम का हर जगह दुरुपयोग हो रहा है। महिलाओं के लिए केवल ज़िम्मेदारियाँ हैं। मर्द की सहमति के बिना ख़ुला नहीं होता, ये तथ्य है. लेकिन ये भी सही है कि मर्द को इसमें ना करने का भी अधिकार नहीं है। क़ुरान में सूरह अल-बक़रा में लिखा गया है कि कोई भी महिला अपने पति से रिहाई के लिए कुछ देकर, अगर कोई मेहर दी गई थी तो उसे वापस देकर और अगर नहीं मिला है तो उस पर अपनी दावेदारी को ख़त्म करके ख़ुला की मांग कर सकती है. क्योंकि पति आपको शादी के बंधन से मुक्त नहीं कर रहा बल्कि महिला आज़ादी चाहती है. ये तलाक़ महिला के पहल पर हो रहा है। एआईएमपीएलबी मुसलमानों नहीं, बल्कि केवल पुरुषों का बोर्ड बन कर रह गया है। वो हर चीज़ को ऐसे बताते हैं जैसे इस्लाम केवल पुरुषों के लिए है और उन्हें ही पूरे अधिकार हैं। “

लेखक ज़िया-उस-सलाम, जो इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों पर कई किताबें लिख चुके हैं, कहते हैं कि “क़ुरान में तीन बार तलाक़ का प्रावधान किया गया है। तलाक़-ए-अहसन में पति एक बार ही तलाक़ देता है। इस दौरान पति और पत्नी तीन महीने तक साथ रहते हैं जिसे इद्दत का वक़्त कहा जाता है। तीन महीने के अंदर अगर दोनों में संबंध सामान्य रहते हैं तो पति दिए गए तलाक़ को वापस ले लेता है और तलाक़ ख़त्म हो जाता है। वहीं तलाक़ दिए जाने के बाद इद्दत के दौरान पति और पत्नी को अपनी ग़लती का एहसास हो जाता है और दोनों साथ आना चाहते हैं, तो दोनों फिर से निकाह कर सकते हैं, वरना तलाक़ बरक़रार रहता है। इसके अलावा तीसरा तरीक़ा ख़ुला है जिसमें पत्नी को तलाक़ का अधिकार मिलता है। वे बताते हैं,”क़ुरान में ये भी कहा गया है कि एक महिला की माहवारी के दौरान तलाक़ नहीं दिया जा सकता है क्योंकि माना जाता है कि इस दौरान महिला पर शारीरिक और मानसिक थकान होती है और ऐसे में उसे तक़लीफ़ नहीं दी जानी चाहिए। ”

सुप्रीम कोर्ट में तलाक़-ए-अहसन के एक मामले के तहत सुनवाई हो रही है. इसमें तीन महीने के अंतराल में तीन बार तलाक़ दिया जाता है।

जानकारों का कहना है कि पिछले 15 सालों में महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता आई है, लेकिन पितृस्तात्मक सोच एक लड़की के ज़हन में बचपन से ही डाल दी जाती है। लड़कियों को उनके कर्त्तव्यों के बारे में तो बताया जाता है, लेकिन उनके अधिकारों के बारे में ध्यान नहीं दिलाया जाता है। 

स्त्रोत : बीबीसी