मुसलमान महिलाओं को अपने पति को तलाक़ देने का अधिकार 

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    <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
      मुसलमानों में तलाक़ ए बिद्दत यानी इंस्टेंट तलाक़ को ग़ैर क़ानूनी बनाने वाला मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) क़ानून 2019 बनाया गया है.
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    <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
      इक़रा इंटरनेशनल वीमेन अलांयस नाम की संस्था में एक्टिविस्ट और मुसलमान महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम कर रही उज़्मा नाहिद का कहना है कि तलाक़ देने का हक़ पुरुष का होता है और ख़ुला लेने का अधिकार महिला का होता है। <span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);"> मुसलमान  महिलाओं को ख़ुला के तहत तलाक़ नहीं मिल रहा है या तलाक़ का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">केरल हाई कोर्ट में जो मामला आया है वो शरीयत के ख़िलाफ़ नहीं है और ये इस्लामिक शरिया को चुनौती नहीं देता है.&#8221;</span>
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      <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
        मुसलमान महिलाओं के सशक्तीकरण पर काम करने वाली संस्था आवाज़-ए-ख़वातीन की निदेशक रत्ना शुक्ला आनंद का कहना है कि &#8221; महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। <span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">औरत की सहमति के बिना मर्द अगर तलाक़ लेने की पहल कर सकता है तो महिलाओं को भी ये हक़ होना चाहिए कि वो अपने पति से संबंध-विच्छेद करने की पहल कर सकें। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">औरतों के सम्मान और उसकी मर्यादा को बनाए रखने के लिए ये बहुत ज़रूरी हो गया है कि इस्लाम में दिए जाने वाले हर तरह के तलाक़ को प्रतिबंधित किया जाए और ये क़ानून बनाया जाए कि तलाक़ सिर्फ़ अदालत के ज़रिए ही होगा।  ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इस्लाम का हर जगह दुरुपयोग हो रहा है। महिलाओं के लिए केवल ज़िम्मेदारियाँ हैं। मर्द की सहमति के बिना ख़ुला नहीं होता, ये तथ्य है. लेकिन ये भी सही है कि मर्द को इसमें ना करने का भी अधिकार नहीं है। क़ुरान में सूरह अल-बक़रा में लिखा गया है कि कोई भी महिला अपने पति से रिहाई के लिए कुछ देकर, अगर कोई मेहर दी गई थी तो उसे वापस देकर और अगर नहीं मिला है तो उस पर अपनी दावेदारी को ख़त्म करके ख़ुला की मांग कर सकती है. क्योंकि पति आपको शादी के बंधन से मुक्त नहीं कर रहा बल्कि महिला आज़ादी चाहती है. ये तलाक़ महिला के पहल पर हो रहा है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">एआईएमपीएलबी मुसलमानों नहीं, बल्कि केवल पुरुषों का बोर्ड बन कर रह गया है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">वो हर चीज़ को ऐसे बताते हैं जैसे इस्लाम केवल पुरुषों के लिए है और उन्हें ही पूरे अधिकार हैं। &#8220;</span>
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          <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
            लेखक ज़िया-उस-सलाम, <span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">जो इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों पर कई किताबें लिख चुके हैं, कहते हैं </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">कि &#8220;क़ुरान में तीन बार तलाक़ का प्रावधान किया गया है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">तलाक़-ए-अहसन में पति एक बार ही तलाक़ देता है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">इस दौरान पति और पत्नी तीन महीने तक साथ रहते हैं जिसे इद्दत का वक़्त कहा जाता है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">तीन महीने के अंदर अगर दोनों में संबंध सामान्य रहते हैं तो पति दिए गए तलाक़ को वापस ले लेता है और तलाक़ ख़त्म हो जाता है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">वहीं तलाक़ दिए जाने के बाद इद्दत के दौरान पति और पत्नी को अपनी ग़लती का एहसास हो जाता है और दोनों साथ आना चाहते हैं, तो दोनों फिर से निकाह कर सकते हैं, वरना तलाक़ बरक़रार रहता है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">इसके अलावा तीसरा तरीक़ा ख़ुला है जिसमें पत्नी को तलाक़ का अधिकार मिलता है। वे बताते हैं,&#8221;क़ुरान में ये भी कहा गया है कि एक महिला की माहवारी के दौरान तलाक़ नहीं दिया जा सकता है क्योंकि माना जाता है कि इस दौरान महिला पर शारीरिक और मानसिक थकान होती है और ऐसे में उसे तक़लीफ़ नहीं दी जानी चाहिए। &#8221;</span>
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          <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
            सुप्रीम कोर्ट में तलाक़-ए-अहसन के एक मामले के तहत सुनवाई हो रही है. इसमें तीन महीने के अंतराल में तीन बार तलाक़ दिया जाता है।
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          <p class="bbc-kl1u1v e17g058b0" dir="ltr">
            <span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">जानकारों का कहना है कि पिछले 15 सालों में महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता आई है, लेकिन पितृस्तात्मक सोच एक लड़की के ज़हन में बचपन से ही डाल दी जाती है। </span><span style="color: var(--dark-color); font-family: var(--primary-font); font-weight: var(--font-weight);">लड़कियों को उनके कर्त्तव्यों के बारे में तो बताया जाता है, लेकिन उनके अधिकारों के बारे में ध्यान नहीं दिलाया जाता है। </span>
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        स्त्रोत : बीबीसी
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