हिन्दू धर्म में तलाक कैसे होता है ?
हिन्दू धर्म में तलाक की अवधारणा
प्राचीन हिन्दू धर्म में विवाह सात जन्मों का बंधन माना गया था। इसलिए मूल रूप से हिंदू धर्म में तलाक का कोई कंसेप्ट नहीं है। हालांकि इस मान्यता के बावजूद भी कुछ मामलों में पति एवं पत्नी विवाह के बंधनों से मुक्त हो सकते थे। लेकिन फिर भी यह बहुत अधिक प्रचलन में नहीं था, और विवाह को समाप्त करना लगभग असंभव माना जाता था।
हिंदू धर्म में इस मान्यता में परिवर्तन हिंदू कोड बिल यानी हिंदुओं के संबंध में बनाए गए कानूनों से आया। सन 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के पारित होने के पश्चात हिंदू धर्म में भी अन्य धर्मों की तरह पति एवं पत्नी के मध्य संबंध को समाप्त किए जाने का प्रावधान बना दिया गया, और न्यायालय के अधिकार दिया गया कि वे हिंदू रीति से हुए विवाह को भी समाप्त करने का आदेश पारित कर सकते हैं।
हिन्दू धर्म में तलाक को क्या कहते हैं
तलाक को हिन्दू धर्म में विवाह विच्छेद कहते हैं। तलाक एक अरबी भाषा का शब्द है। हिंदी में तलाक का समानार्थी शब्द खोजना मुश्किल है। विवाह विच्छेद मूल शब्द नहीं है बल्कि इसका निर्माण किया गया है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में तलाक के आधार
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के की धारा 13 के में तलाक के आधार दिए गए हैं –
- जारता (Adultery)
- क्रूरता (Cruelty)
- अभित्याग (Desertion)
- धर्म परिवर्तन (Conversion)
- मस्तिष्क – विकृतता (Unsoundness of mind)
- कोढ़ (Leprosy)
- रतिजन्य रोग (Venereal Disease)
- संसार परित्याग (Renunciation of the world)
- प्रकल्पित मृत्यु (Presumed death)
- न्यायिक पृथक्करण( Judicial separation)
- दांपत्य अधिकार के पुनर्स्थापन की डिक्री का पालन न करना (Non compliance of the Decree of Restitution of Conjugal Rights)
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि उपरोक्त सभी आधार पति एवं पत्नी दोनों को प्राप्त होते हैं। यानी पति एवं पत्नी दोनों ऊपर बताए गए आधारों पर न्यायालय में तलाक के लिए आवेदन दे सकते हैं।
पति अथवा पत्नी के द्वारा जारता (Adultery)
जारता की अवधारणा को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह कानून संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा सम्मिलित किया गया था।
अपने पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से सम्बन्ध बनाना जारता कहलाता है। धारा 13 के अंतर्गत यह भी तलाक का एक आधार है। विवाह के पश्चात अपनी पत्नी या अपने पति से भिन्न किसी व्यक्ति के संग स्वेच्छा से संभोग किया जाना जारता है, जो कि विवाह विच्छेद का पर्याप्त आधार है। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1)( i) के अनुसार इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री पारित की जा सकती है कि दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात अपनी पत्नि या अपने पति से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छा से शारीरिक सम्बन्ध बनाया है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत जारता एक अपराध था, किंतु सितंबर 2018 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। किंतु अभी भी एडल्ट्री यानी जारता हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक का एक महत्वपूर्ण आधार है।
स्वप्ना घोष बनाम सदानंद घोष
इस मामले में पत्नी ने अपने पति को दूसरी लड़की के साथ उसी बिस्तर पर पाया और पड़ोसी ने भी पति के अपराध की पुष्टि की। यहां पत्नी अपने पति से जारता के आधार पर तलाक का केस फ़ाइल करती है और न्यायलय के आदेश पर जारता के आधार पर दोनों का तलाक हो जाता है।
जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2018
इस प्रकरण में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के साथ साथ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 198 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इसी प्रकरण में न्यायालय ने माना था कि व्यभिचार का प्रावधान लिंग के आधार पर मनमाना और भेदभावपूर्ण था और इस तरह के कानून ने महिलाओं की गरिमा को हानि पहुंचाई है।
साचिन्द्रनाथ चटर्जी बनाम श्रीमती नीलिमा चटर्जी
इस मामले में शादी के बाद पति पत्नी को उसके गृह नगर में छोड़ देता है, ताकि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर दूसरे शहर में काम के लिए जा सके। वह महीने में दो-तीन बार उससे मिलने आता था। बाद में उसने पाया कि उसकी पत्नी व्यभिचार करती है। पति व्यभिचार के आधार पर तलाक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाता है। उसकी याचिका स्वीकार कर ली जाती है और विवाह भंग कर दिया जाता है।
पति अथवा पत्नी के साथ क्रूरता (Cruelty)
1976 से पहले, क्रूरता तलाक के लिए आधार नहीं थी। यह मात्र न्यायिक पृथक्करण का आधार था। संशोधन अधिनियम द्वारा क्रूरता को तलाक का आधार बनाया गया है।
क्रूरता का अर्थ है पति अथवा पत्नी को पीड़ित करना। क्रूरता होने के लिए शरीर के किसी अंग को, जीवन को, स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक खतरा हो या होने की युक्तियुक्त आशंका को आवश्यक माना गया है।
कानून में तलाक का आधार बनने के लिए दो प्रकार की क्रूरता पति अथवा पत्नी के साथ हो सकती है –
- शारीरिक क्रूरता – चोट पहुँचाना , मरना, पीटना या कोई अन्य शारीरिक नुकसान पहुँचाना।
- मानसिक क्रूरता – मानसिक रूप से हानि पहुंचना शामिल है।
उदाहरण के लिए पति द्वारा पत्नी के प्रति मानसिक क्रूरता माना जा सकता है :
- दहेज की मांग करना।
- पत्नी को दुसरो के सामने अपमानित करना।
- पत्नी के मायके या रिश्तेदारों के बारे में अपशब्द कहना या दुर्व्यवहार करना।
- नपुंसकता।
- बच्चे का जन्म को ताना देना।
- आत्महत्या करने की धमकी।
- मद्यपान (शराब का सेवन ) आदि।
इसी प्रकार पत्नी द्वारा पति के प्रति मानसिक क्रूरता के रूप में आएगा :
- अपने परिवार और दोस्तों के सामने पति को अपमानित करना।
- पति की सहमति के बिना गर्भ को समाप्त करने की धमकी देना।
- पति पर झूठा आरोप लगाना ।
- बिना किसी वैध कारण के शारीरिक संबंध के लिए इनकार।
- पत्नी अनैतिक जीवन व्यतीत कर रही है।
- पैसे की लगातार मांग।
- पत्नी का आक्रामक और बेकाबू व्यवहार।
- पति या पति के माता-पिता और परिवार के साथ दुर्व्यवहार।
भावना एन. शाह बनाम नितिन चिमनलाल शाह, (ए.आई.आर.2012 बम्बई 148)
इस मामले में पत्नी द्वारा पति पर यह आरोप लगाए गए कि उसके अपनी सगी बहनों के साथ अवैध संबंध है, लेकिन वह इस आरोप को साबित नहीं कर सकी। न्यायालय ने इसे पति के प्रति मानसिक क्रूरता माना और पति को विवाह -विच्छेद की डिक्री पाने का हकदार ठहराया।
बलराम प्रजापति बनाम सुशीला बाई
इस मामले में याचिकाकर्ता ने मानसिक क्रूरता के आधार पर अपनी पत्नी के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की थी। उसने साबित कर दिया कि उसकी पत्नी का उसके और उसके माता-पिता के साथ व्यवहार आक्रामक और बेकाबू था और कई बार उसने अपने पति के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज कराई। अदालत याचिका को स्वीकार कर लेती है और क्रूरता के आधार पर तलाक दे देती है।
प्रवीण मेहता बनाम इंद्रजीत मेहता
इस मामले में, पति ने क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। पत्नी किसी बीमारी से पीड़ित थी, और पति अपनी पत्नी को नियमित जांच और उपचार के लिए ले गया था। हालांकि, पत्नी को कोई भी चिकित्सा उपचार लेने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जिसके कारण उसकी स्थिति लगातार बिगड़ती गई और उसे दमा का दौरा पड़ा। पति ने उसे सर्वोत्तम चिकित्सा उपचार प्रदान करने के लिए कई प्रयास किए लेकिन उसके सभी प्रयास विफल रहे। इसलिए पति ने पत्नी द्वारा अपने साथ क्रूरता के आधार पर विवाह के विघटन के लिए आवेदन किया था। उच्च न्यायालय ने पति की इस याचिका को मंजूर किया था और तलाक का आदेश दिया था।
सावित्री पांडे विरुद्ध प्रेम चंद्र पांडे
इस मामले में अदालत ने माना कि हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन वैवाहिक मामलों के संबंध में क्रूरता इस प्रकार का आचरण है जिससे दूसरे व्यक्ति का जीवन संकट में आ सकता है। क्रूरता एक ऐसा कार्य है जो जीवन, अंग या स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। क्रूरता शारीरिक या मानसिक भी हो सकती है।
के. श्रीनिवास विरुद्ध डी. ए. दीपा (ए आई आर 2013 एस.सी.2176)
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में क्रूरता के दायरे को थोड़ा अधिक विस्तार दिया है। इस मामले में पत्नी के दुराचरण के कारण पति को अपनी नौकरी से निकाल दिया जाता है। यहाँ पत्नी का यह कृत्य मानसिक क्रूरता के अंतर्गत आता है, इसे क्रूरता मानते हुए पति विवाह विच्छेद की डिक्री न्यायालय से प्राप्त कर सकता है।
पति अथवा पत्नी का परित्याग (Desertion) –
बिना किसी उचित कारण के, अपने पति या पत्नी की सहमति के बिना विवाह के सभी कर्तव्यों और दायित्वों का पालन न करना ही पति द्वारा पत्नी का अथवा पत्नी द्वारा पति का परित्याग करना कहलाता है।
मंगतानी बनाम मंगतानी, ( ए आई आर 2005 सुप्रीम कोर्ट 3508)
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अवधारित किया कि मात्र पति का आर्थिक रूप से निर्बल होना पत्नी के अभित्याग का युक्तिसंगत कारण नहीं हो सकता।
बिपिन चंद्र बनाम प्रभावती ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 176
इस मामले में पति अपने व्यवसाय के लिए इंग्लैंड गया, और भारत लौटने पर पता चला कि उसकी पत्नी का अन्य पुरुष के साथ प्रेम संबंध था, अपीलकर्ता ने अपने वकील के माध्यम से पत्नी को एक नोटिस भेजा। पति ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक के लिए मुकदमा दायर किया और यह आधार दिया कि पत्नी ने बिना उचित कारण के, पति की सहमति के बिना चार साल से अधिक समय तक पति का परित्याग कर दिया था।
धर्मांतरण (Conversion)
जब कोई व्यक्ति अपना धर्म छोड़ कर किसी अन्य धर्म में चला जाता है तो उसे तो उसे धर्मांतरण कहते है। जैसे कोई हिंदू यदि किसी अन्य धर्म जैसे इस्लाम, ईसाई धर्म आदि में परिवर्तित करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत पति या पत्नी के द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर किसी अन्य धर्म में चले जाने पर भी दूसरा पक्ष तलाक के लिए न्यायालय में आवेदन दे सकता है।
सुरेश बाबू विरुद्ध वी.पी. लीला 2006
इस मामले में एक पति ने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म अपना लिया ताकि वह किसी अन्य से विवाह कर सके। पत्नी ने इसी आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर की थी। अदालत ने वैवाहिक उद्देश्यों के लिए दूसरे धर्म में धर्मांतरण को गलत बताया। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत यह तलाक का एक वैध आधार था। इस मामले में न्यायालय ने पत्नी को तलाक दिलवाया।
मदानम सीता रामलू बनाम मदानम विमला (ए आई आर 2014 (एन. ओ .सी.) 412 आंध्र प्रदेश।
इस मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि यदि विवाह का कोई पक्षकार अपने विवाह के पश्चात धर्म परिवर्तन कर लेता है तो उक्त परिस्थिति मैं दूसरे पक्षकार को इस बात का अधिकार होगा कि वह धर्म परिवर्तन के आधार पर विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है।
मस्तिष्क की विकृतता (Unsoundness of mind)
मानसिक अस्वस्थता के लिए तलाक के आधार के रूप में दो आवश्यकताओं का पालन किया जाना चाहिए:
विनीता सक्सेना बनाम पंकज पंडित
इस मामले में, पत्नी ने पति से इस आधार पर तलाक का मामला दायर किया कि पति एक मानसिक विकार पैरानॉयड सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित था। ये बात उन्हें शादी के बाद पता चली। यहां अदालत ने पति के मानसिक अस्वस्थता के आधार पर पत्नी का तलाक का आवेदन स्वीकार कर लिया था।
प्रकल्पित मृत्यु / मृत्यु का अनुमान (Presumed death)
यदि कोई व्यक्ति 7 वर्ष तक गायब रहता है या उसके बारे में पता करने पर भी कोई जानकारी या सूचना नहीं मिलती है तो न्यायालय या उपधारणा (अनुमान) कर सकते हैं कि वह व्यक्ति शायद मृत हो गया है। इस आधार पर उसके पति अथवा पत्नी को तलाक दिलवाया जा सकता है।
कोढ़ के आधार पर तलाक ( Leprosy)
जब विवाह का एक पक्षकार याचिका प्रस्तुत किए जाने के समय कोढ़ से पीड़ित रहा हो तो यह आधार इस अधिनियम की धारा 13 (1)(iv ) विवाह विच्छेद का अधिकार प्रदान करता है।
स्वराज्य लक्ष्मी बनाम ग.जी. पद्माराव (एआईआर 1974 एस.सी.606)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लेप्रीपेटस कोढ़ घातक एवं संक्रामक होता है। यह कोढ़ चिकित्सा से अच्छा नहीं हो सकता तो विवाह के दूसरे पक्षकार को विवाह विच्छेद का हक प्रदान करता है।
रतिजन्य रोग (Venereal Disease)
हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार, यौन रोग तलाक का आधार हो सकते है।
संन्यास (Renunciation of the world)
सन्यास का अर्थ है इस संसार के सभी दायित्वों से मुक्त हो जाना। संयास ले कर व्यक्ति सभी रिश्ते और नातों से भी अलग हो जाता है। हिंदू धर्म में सन्यास लेने पर उस व्यक्ति का संबंध किसी से भी नहीं रह जाता है। और ऐसा माना जाता है कि अब उसका पुनर्जन्म हो गया है। इसलिए हिंदू धर्म में संयास लेने वाले व्यक्ति के साथ वैवाहिक दायित्वों का पालन करना लगभग असंभव होता है। कानूनी इसी आधार पर संयास लेने वाले व्यक्ति के पति अथवा पत्नी को उसके वैवाहिक दायित्वों से मुक्त करने के लिए उसको तलाक का प्रावधान करता है। इसका अर्थ है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत संन्यास लेने वाले व्यक्ति का पति अथवा पत्नी न्यायालय में तलाक के लिए आवेदन कर सकते हैं।
न्यायिक पृथक्करणके आधार पर तलाक ( Judicial separation)
जब किसी मामले में न्यायालय ने न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर दी है और उसकी 1 वर्ष से अधिक समय तक जब पति या पत्नी उस न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद उस व्यक्ति के साथ सहवास का पुनरारम्भ न किया हो जिसके विरुद्ध डिक्री प्राप्त की गई है तो उस अवस्था में तलाक याचिका प्रस्तुत की जा सकती है।
दांपत्य अधिकार के पुनर्स्थापन की डिक्री का पालन न करना
जब न्यायालय में विवाह के पहले पक्ष कारने दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना की बिक्री दूसरे पक्षकार के विरुद्ध प्राप्त कर ली है और ऐसी डिग्री की दिनांक से एक वर्ष या इससे अधिक समय तक दूसरा पक्षकार उस डिक्री पालन ना करे तो उस दशा में भी विवाह का पहला पक्षकार तलाक के लिए न्यायलय जा सकता है।
सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार (ए आई आर 1984 एस.सी. 1562)
इस मामले में दांपत्य अधिकारों की पुनः स्थापना की समझौता डिक्री होने के 1 वर्ष तक पति एवं पत्नी में सहवास नहीं हुआ। पत्नी ने आरोप लगाया कि पति की बदमाशी के कारण ऐसा नहीं हो सका। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विवाह को विकसित किया जा सकता है।
केवल पत्नी को प्राप्त होने वाले तलाक के आधार (Grounds of the divorce available to the wife only)
इस लेख में ऊपर बताये गये इन आधारों के अलावा कुछ ऐसे विशेष आधार भी है, जिनमें केवल पत्नी ही तलाक के लिए आवेदन दे सकती है। वे अधिकार पति को प्राप्त नहीं है। ऐसे विशेष आधार नीचे दिए गए हैं –
- बहु- विवाह (Bigamy)
- पति द्वारा बलात्कार (Rape), गुदामैथुन (Sodomy) अथवा पशुगमन (Bestiality)
- भरण पोषण की डिक्री (Non compliance of the Decree of maintenance)
- यौवन का विकल्प (Option of puberty)
पारस्परिक सहमति से तलाक (Divorce by mutual consent)
उपरोक्त आधारों के अतिरिक्त पारस्परिक सहमति से तलाक (Divorce by mutual consent) भी लिया जा सकता है। लेकिन इसमें दोनों पक्षों का सहमत होना आवश्यक है।