लिव-इन संबंधों को संबोधित करने वाला कोई कानून नहीं है। इसीलिए लिव-इन संबंधों में कई बार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग तरह के विरोधाभासी फैसले आते रहते हैं। क्योंकि यह उस केस के फैक्ट और मानव अधिकारों पर आधारित होते हैं।

लिव-इन (live-in) संबंधों की वैधानिकता

लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता भारत के संविधान के अनुच्छेद 21- जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से जन्मी है।

“जीवन का अधिकार किसी व्यक्ति को हर तरह से जीवन जीने की स्वतंत्रता पर जोर देता है। इसी के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपनी रुचि के व्यक्ति के साथ शादी के साथ या उसके बिना रहने का अधिकार है।

बद्री प्रसाद बनाम बोर्ड ऑफ कंसोलिडेटर्स 1978, मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यदि एक पुरुष और एक महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में रहते हैं तो विवाह की उप धारणा की जा सकती है यानी यह अर्थ लगाया जा सकता है कि वे दोनों आपस में विवाहित हैं।

लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और कई अन्य मामलों में सुप्रीमकोर्ट ने लिव इन रिलेशन की विस्तृत व्याख्या की है।

पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन 2001

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक पुरुष और एक महिला का एक साथ रहना गैरकानूनी नहीं है।

इस फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि “वह लड़का और लड़की दोनों बालिग [वयस्क] है तो उन्हें कहीं भी जाने और किसी के भी साथ रहने का अधिकार है। हमारी राय में एक पुरुष और एक महिला अगर चाहें तो बिना शादी किये भी एक साथ रह सकते हैं। इसे समाज द्वारा अनैतिक माना जा सकता है लेकिन यह अवैध नहीं है। ”

बद्री प्रसाद बनाम डिप्टी के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार। भारत में लिव-इन रिलेशनशिप कानूनी हैं, लेकिन कुछ व्यावहारिक शर्तों के अधीन है।

एक अन्य मामले में उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति अंजनी कुमार मिश्र और न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया की पीठ ने कामिनी देवी बनाम अजय कुमार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि दुनिया के कई दूसरे देशों की तरह भारत में भी लिव इन को सामाजिक मान्यता नहीं है मगर दो लोगों के बिना शादी किए साथ रहने से कोई अपराध नहीं बनता है। भले ही इसे अनैतिक माना जाए। कोर्ट ने कहा कि ऐसी स्थिति से महिलाओं को संरक्षण देने के लिए घरेलू हिंसा कानून बनाया गया है। जिसका सहारा वह महिलाएं भी ले सकती हैं जो बिना विवाह किए विवाह जैसी स्थिति में रह रही हैं।

लता सिंह बनाम यूपी राज्य, सुप्रीम कोर्ट, 2006

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि विपरीत लिंग के दो व्यक्ति एक साथ रहकर कुछ भी गैरकानूनी नहीं कर रहे हैं।

2010 में, एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के 2006 के फैसले को दोहराया और कहा, ” दो वयस्कों के बीच सहमति से लिव-इन संबंध किसी भी अपराध की श्रेणी में नहीं आता है (‘व्यभिचार’ के स्पष्ट अपवाद के साथ), भले ही इसे अनैतिक माना जा सकता है”।

हालांकि व्यभिचार (Adultry ) भी अब अपराध नहीं रह गया है, क्योंकि 2018 में जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था।

इंद्रा शर्मा बनाम शर्मा सरमा मामले में 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में महिला साथी को घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 के तहत संरक्षित किया गया है।

लिव-इन रिलेशनशिप में साझेदारों के अधिकार

2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि महिलाओं को PWDV अधिनियम, 2005 के तहत संरक्षित किया गया है क्योंकि लिव-इन रिलेशनशिप कानून की धारा 2 (एफ) के तहत आता है जो घरेलू रिश्ते को परिभाषित करता है।

यह घरेलू संबंध को “दो व्यक्तियों के बीच संबंध के रूप में परिभाषित करता है जो किसी भी समय एक साझा घर में एक साथ रहते हैं या रहते हैं, जब वे सजातीयता, विवाह, या विवाह, गोद लेने की प्रकृति के रिश्ते के माध्यम से संबंधित होते हैं या हैं परिवार के सदस्य संयुक्त परिवार के रूप में एक साथ रहते हैं”।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप उपधारा में उल्लिखित “विवाह की प्रकृति के रिश्ते” के अंतर्गत आता है।

वेलुसामी बनाम डी पचैमल,  2010 में मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी बनाने के लिए मानदंड तय किए :

सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्धारित मानदंड :

  1. दम्पति को स्वयं को जीवनसाथी के समान समाज के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए
  2. उनकी शादी करने की कानूनी उम्र होनी चाहिए
  3. उन्हें अविवाहित होने सहित, कानूनी विवाह में प्रवेश करने के लिए अन्यथा योग्य होना चाहिए
  4. उन्हें स्वेच्छा से एक साथ रहना होगा और एक महत्वपूर्ण अवधि के लिए जीवनसाथी के समान होने के नाते खुद को दुनिया के सामने रखना होगा

इसलिए, कुछ लिव-इन रिलेशनशिप, जहां दो विवाहित व्यक्ति या एक विवाहित और दूसरा अविवाहित व्यक्ति एक साथ रह रहे हैं, का कानूनी आधार नहीं है।

लिव-इन रिलेशनशिप में पार्टनर्स को भरण-पोषण का अधिकार

मलिमथ समिति की रिपोर्ट ने ‘पत्नी’ शब्द की परिभाषा को बढ़ाकर उस महिला को भी शामिल कर दिया है जो काफी समय तक किसी पुरुष के साथ उसकी पत्नी की तरह रही है और इस प्रकार कानूनी रूप से भरण-पोषण का दावा करने के लिए पात्र है।’

अजय भारद्वाज बनाम ज्योत्सना , पंजाब उच्च न्यायालय , 2016
पंजाब उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार, महिलाएं लिव-इन रिलेशनशिप में गुजारा भत्ता पाने की भी पात्र हैं।

लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों की वैधता

कट्टुकंडी एडथिल कृष्णन और अन्य बनाम कट्टुकंडी एडथिल वाल्सन और अन्य, सुप्रीम कोर्ट, जून 2022

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में पार्टनर से पैदा हुए बच्चों को वैध माना जा सकता है। यह एक तरह से सशर्त है कि संबंध दीर्घकालिक होना चाहिए, न कि ‘वॉक इन, वॉक आउट’ प्रकृति का।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया, “पुरुष और महिला के बीच लंबे समय तक साथ रहने से उनके बीच विवाह की धारणा बनेगी और ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चे वैध बच्चे माने जाएंगे।”

यह ऐसे बच्चों को भी संपत्ति के अधिकार प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “क़ानून विवाह के पक्ष में और रखैल के विरुद्ध मानता है”। यदि कोई पुरुष और महिला सहमति से लंबे समय तक एक साथ रहते हैं और उनके बच्चे को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित नहीं किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला सुनाया है कि ऐसे बच्चे पारिवारिक उत्तराधिकार का हिस्सा बनने के पात्र हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नाजायज शादी या लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुआ बच्चा वैध बच्चा है। इसके अलावा, वे अपनी पैतृक संपत्तियों पर भी सहदायिक अधिकार के हकदार हैं।

सहदायिक अधिकार  क्या होते हैं

सहदायिक अधिकार किसी हिंदू परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे के उस परिवार की संपत्ति पर अधिकारों को तय करते हैं। सहदायिक अधिकार इस बात पर निर्भर करते हैं कि आप हिंदू धर्म की किस शाखा से प्रशासित होते हैं, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो शेष पूरे भारत में हिंदू धर्म की मिताक्षरा विधि ही मुख्य रूप से लागू होती है। एवं पश्चिम बंगाल असम के क्षेत्र में हिंदू धर्म की “दायभाग” विधि लागू होती हैं।

हिंदू विरासत कानून दो स्कूलों में विभाजित हैं – मिताक्षरा और दयाभागा।

मिताक्षरा विधि में बच्चा, जन्म से, पिता के जीवनकाल के दौरान भी पैतृक संपत्ति पर स्वचालित स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
जबकि दयाभाग में, बच्चे के संपत्ति पर अधिकार उसके पिता के निधन के बाद ही आता है।

हालाँकि, अभी तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले दो साझेदारों की संपत्ति के उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान नहीं किया गया है। क्योंकि लिव-इन मैं रहने वाले पार्टनर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत क्लास-1 या क्लास-2 उत्तराधिकारियों के दायरे में नहीं आते हैं।

भारत में समान लिंग वाले लिव-इन संबंध, जैसे गे या लेस्बियन लिव इन सम्बन्ध

भारत में समान-लिंग (गे या लेस्बियन ) विवाह कानूनी नहीं हैं, इसलिए समान-लिंग लिव-इन संबंध भी कानूनी नहीं हैं।

हालांकि 2020 में ओडिशा उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि समान-लिंग संबंध भी वैध हैं।