भारत में राजनीति का अपराधीकरण

Page content

भारत में राजनीति का अपराधीकरण

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है यहां जनप्रतिनिधियों का चुनाव जनता के बीच से ही किया जाता है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण अपराधी भी विधायिका यानी विधानसभाओं और संसद में पहुंच जाते हैं। वे अपराधी न सिर्फ चुनाव जीत कर संसद में और विधानसभा में बैठते है,  बल्कि पूरे देश के लिए कानून भी बनाते हैं।

विधायिका में बैठकर यह अपराधी पूरे देश के लिए कानून बनाते हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र और देशहित के लिए यह व्यवस्था उचित नहीं है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सितंबर 2023 में देशभर में सांसदों और विधायकों पर 5,175 केस दर्ज हैं। इनमें से लगभग 2100 यानी लगभग चालीस प्रतिशत केस तो पाँच साल पुराने हैं। इस  रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखण्ड में नेताओं पर सबसे ज़्यादा आपराधिक मामले चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सांसदों और विधायकों के खिलाफ सर्वाधिक केस लम्बित हैं। इनकी संख्या 1377 हैं जिनमें से 719 केस तो पाँच साल से ज़्यादा पुराने हैं। महाराष्ट्र में नेताओं का केस देख रहे जजों पर सर्वाधिक भार है। वहाँ हर जज के ऊपर नेताओं से जुड़े कम से कम 31 केसों का भार है। ऐसे में नेता अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके केस को लंबा खींचते रहते हैं।

क्या हैं विधायकों और सांसदों को सजा के कानून

किसी गंभीर अपराध में कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए जाने और दो साल से ज़्यादा सजा पाने के बाद नेताओं को छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी जाती है। इसका अर्थ सजा से 6 साल की अवधि तक वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा।

लेकिन वह अपराधी यदि सजा पाने के बाद अपील कर दे तो अपील लंबित रहने की स्थिति तक उसकी सजा निलंबित रहती है।  यानी वह चुनाव लड़ सकता है। इसका सीधा सा परिणाम यह होता है की सजा पाने के बाद अपराधी नेता अपील कर देते हैं और उसके बाद चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।  और ऐसे अपराधी सजा पाने के बाद भी किसी भी विधानसभा या संसद में बैठकर लोकतंत्र का तमाशा बनाते हैं।

अपराधी नेताओ को विशेष छूट पर उठते सवाल

एक परिपक्व लोकतंत्र में अपराधियों को विधायिका में बैठने की खुली छूट को देखकर किसी भी व्यक्ति के मन में लोकतंत्र के प्रति शंका उत्पन्न हो सकती है। इस व्यवस्था को देखकर हर आम नागरिक के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं। जैसे –

  1. क्या सांसदों और विधायकों पर कानून लागू नहीं होते?
  2. विधायकों और सांसदों के अलावा अन्य सभी संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को किसी अपराध में दोषी पाए जाने पर पद से हटा दिया जाता है तो इनको अपराध में दोषी पाए जाने पर भी विशेष छूट क्यों मिलती है?
  3. अपराधी साबित होने पर भी वे किसी संवैधानिक संस्था की कार्यवाही में भाग कैसे ले सकते हैं ?
  4. क्या अपराधियों को कानून बनाने या बदलने की शक्ति होनी चाहिए ?
  5. क्या वास्तव में हमें समानता का अधिकार मिला है ?
  6. क्या कानून और संविधान की दृष्टि में एक आम आदमी और नेता एक समान है?
  7. क्या वाकई न्यायपालिका निष्पक्ष है?

कोई अपराधी किसी न्यायालय से सजा प्राप्त करने के बाद किसी कानून बनाने की प्रक्रिया में कैसे शामिल हो सकता है ?

कल्पना कीजिए कि एक चोरी की सजा पाया हुआ चोर कुछ साल बाद जेल से छठ कर, चुनाव जीतकर संसद में जा बैठे और चोरी पर कानून बनाए। वह बाकी अपराधियों के साथ मिलकर चोरी की सजा और जमाने को खत्म कर दे या कम कर दे, तो क्या होगा? वह कानून सारे देश में लागू होगा । आप खुद ही सोचिए कैसी भयावह स्थिति होगी?

असल में यह कोई काल्पनिक स्थिति नहीं है यह वास्तविकता है। रेप पर कानून बनाने वाले आधे विधायकों, सांसदों पर खुद रेप के केस चल रहे हैं। दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम को बदलने की शक्ति रखने वाले सांसद खुद हत्या, अपहरण, मारपीट, लूट जैसे गंभीर अपराधों के दोषी हैं।

जब आपराधिक प्रवृत्ति में लिप्त पाया गया कोई अन्य सरकारी अधिकारी बर्खास्त हो सकता है तो सांसद और विधायकों को इस मामले में सहूलियत क्यों दी जाती है? ऐसे लोग अगर ज़्यादा संख्या में संसद या विधानसभा में पहुँच गए तो वे तो इस क़ानून को भी बदल सकते हैं! फिर क्या होगा?

क़ानून का पालन करने वालों की बजाय क़ानून बनाने वालों को ज़्यादा पवित्र और पारदर्शी होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा न्याय मित्र की नियुक्ति

2023 में भारत में राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण की गंभीर समस्या को समझते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस समस्या पर सुझाव देने हेतु न्याय मित्र की नियुक्ति की।

न्याय मित्र कौन होता है?

किसी भी प्रकरण में किसी विद्वान या फिर किसी कानून के बड़े जानकार या विशेषज्ञ अथवा वकील को उसे मामले में सुझाव देने के लिए न्यायालय द्वारा नियुक्त किया जाता है। यह विद्वान व्यक्ति उसे मामले के पक्ष और विपक्ष से अलग हटकर होता है। और उसका प्रकरण में कोई हित  नहीं होता। यह न्याय मित्र उसे मामले के उचित निपटारे के लिए कुछ सलाह दे सकता है। यह सलाह न्यायालय पर बाध्यकारी नहीं होती। सलाह को मानना या न मानना न्यायालय के ऊपर निर्भर करता है।

न्याय मित्र के सुझाव

सितंबर 2023 में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त न्याय मित्र के द्वारा भारत में राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण की समस्या पर अपने महत्वपूर्ण सुझाव दिए।

यह सुझाव इस प्रकार है –

  1. अपराध सिद्ध होने पर नेताओं की अयोग्यता का समय तय करना या उन्हें सीमित अवधि तक ही अयोग्य ठहराना संविधान के आर्टिकल 14 के तहत समानता के अधिकार का घोर उल्लंघन है।
  2. अगर कोई निचला कोर्ट किसी को दोषी करार देकर सजा सुना देता है और वह अपील में जाने का सबूत देकर चुनाव लड़ता है तो यह प्रक्रिया भी बंद होनी चाहिए।
  3. जिनके ख़िलाफ़ केस अपील में हैं और वे सांसद या विधायक बने बैठे हैं। कम से कम यह तो होना ही चाहिए कि अपील में जब तक वे निर्दोष साबित नहीं होते तब तक तो चुनाव वे नहीं ही लड़ पाएं।
  4. एक देश, एक विधान, एक निशान के इस दौर में नेताओं और आम लोगों के लिए अलग- अलग नियम- क़ानून नहीं होने चाहिए।
  5. आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को संसद या विधानसभा में आने से सख़्ती के साथ रोका जाए।
  6.  नेताओं से जुड़े इन मामलों का जल्द से जल्द निपटारा करने के लिए इनकी रोज़ सुनवाई होनी चाहिए।
  7. जिन जजों के पास नेताओं से जुड़े मामले चल रहे हैं उन्हें इन केसों के निपटारे से पहले दूसरे केस नहीं दिए जाने चाहिए।
  8. सभी हाईकोर्ट को चाहिए कि वे अपने अधीनस्थ न्यायालयों से कहें कि नेताओं से जुड़े मामलों की सुनवाई न टाली जाए।
  9. ऐसे मामलों में दो- दो लोक अभियोजकों की नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि किसी एक की छुट्टी के कारण सुनवाई नहीं टाली जा सके।